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Showing posts from 2013

श्रुत लोकोक्तियाँ - १

मूस मोटाये लोढ़ा ना होए  भावार्थ :   बाप पदहै न जाने । पूत शंखै बजावै  भावार्थ :   चलै न चलै, मेडवै ओदारै भावार्थ :   बाढै पूत पिता के धर्मे,  खेती उपजै अपने कर्मे भावार्थ : पुत्र का विकास (किसी भी सन्दर्भ में ) पिता के द्वारा की गयी धर्म, कर्म और आर्थिक स्तिथि के आधार पर होता हा परन्तु, खेती केवल और केवल अपने किये गए कर्मों के आधार पर ही उपजती है  जिसमें आपकी लगन और सहिष्णुता आधार होते हैं |

घर से निकलते समय ॥

अचानक बचपन में माँ द्वारा कही एक लोकोक्ति याद आई। यह लोकोक्ति बताती है की घर से निकलने से पहले क्या करें की आपका काम सफल हो जाये । रवि को पान, सोम को दर्पण (दर्पण देख कर निकलो ), मंगल कीजे  गुड़  को   अर्पण, बुध को धनिया, बिफ़ै राइ, सुक कहे मोहे दही सुहाई, शनिचर कहे जो अदरक पाऊं तीनो लोक जीत घर जाऊं मैं ये नहीं कह रहा की ये सत्य है और मैं ये भी नहीं कहता की ये सब बकवास और ढकोसला है पर इतना कहना चाहता हूँ की इन कामों कर के घर से निकलने पर आत्मविश्वास बढ़ जाता है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है ॥ धन्यवाद्