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Showing posts from 2015

बचपन की कविता ३ - चाँद का हठ

हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला | सन सन चलती हवा रात भर जाडे में मरता हूँ ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ | आसमान का सफर और यह मौसम है जाडे का न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाडे का | बच्चे की सुन बात कहा माता ने अरे सलोने कुशल करे भगवान लगे मत तुझको जादू टोने | जाडे की तो बात ठीक है पर मै तो डरती हूँ एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ | कभी एक अंगुल भर चौडा कभी एक फुट मोटा बडा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा | घटता बढता रोज़ किसी दिन ऐसा भी करता है नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पडता है | अब तू ही यह बता नाप तेरा किस रोज़ लिवायें सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आयें | -   द्वारका प्रसाद माहेश्वरी                      

गंगा गीत

यह गंगा गीत जो पढ़ने और सुनाने में अति उत्तम लगता है और हमारी अपनी गंगा के प्रति समर्पण की भावना उत्पन्न करता है यह कल कल छल छल बहती क्या कहती गंगा धारा ? युग युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा    ।धृ । हम ईसके लघुतम जलकण बनते मिटते हेै क्षण क्षण अपना अस्तित्व मिटाकर तन मन धन करते अर्पण बढते जाने का शुभ प्रण प्राणों से हमको प्यारा युग युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा   ।१ । ईस धारा में घुल मिलकर वीरों की राख बही है ईस धारामें कितने ही ऋषियों ने शरण ग्रही है ईस धाराकी गोदि में, खेला ईतिहास हमारा  युग युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा   ।२ । यह अविरल तप का फल है यह राष्ट्रप्रवाह प्रबल है शुभ संस्कृति का परिचायक भारत मां का आंचल है हिंदुकी चिरजीवन मर्यादा धर्म सहारा  युग युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा   ।३ । क्या ईसको रोख सकेंगे मिटनेवाले मिट जायें कंकड पत्थर की हस्ती कया बाथा बनकर आये ढह जायेंगे गिरि पर्वत कांपे भूमंडल सारा  युग युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा  ।४ ।

बचपन की कविता १ - उठो लाल

उठो लाल अब आँखे खोलो, पानी लाई हूँ मुह धो लो | बीती रात कमल दल फूले, उनके ऊपर भँवरे झूले | चिड़िया चहक उठी पेड़ों पर, बहने लगी हवा अति सुन्दर |  नभ में न्यारी लाली छाई, धरती ने प्यारी छवि पाई | भोर हुई सूरज उग आया, जल में पड़ी सुनहरी छाया | नन्ही नन्ही किरणें आईं, फूल खिले कलियाँ मुस्काईं | इतना सुन्दर समय ना खोओ, मेरे प्यारे अब मत सोओ |

बचपन की कविता २ - यदि होता किन्नर नरेश मैं

यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता| सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता|| बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे | प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे || मेरे वन में सिह घूमते, मोर नाचते आँगन | मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण || यदि होता किन्नर नरेश मैं, शाही वस्त्र पहनकर | हीरे, पन्ने, मोती माणिक, मणियों से सजधज कर || बाँध खडग तलवार सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता | बड़े सवेरे ही किन्नर के राजमार्ग पर चलता || राज महल से धीमे धीमे आती देख सवारी | रूक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी || जय किन्नर नरेश की जय हो, के नारे लग जाते | हर्षित होकर मुझ पर सारे, लोग फूल बरसाते || सूरज के रथ सा मेरा रथ आगे बढ़ता जाता | बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता || तब लगता मेरी ही हैं ये शीतल मंद हवाऍ | झरते हुए दूधिया झरने, इठलाती सरिताएँ || हिम से ढ़की हुई चाँदी सी, पर्वत की मालाएँ | फेन रहित सागर, उसकी लहरें करतीं क्रीड़ाएँ || दिवस सुनहरे, रात रूपहली ऊषा-साँझ की लाती | छन-छनकर पत्तों से बुनती हुई चाँदनी जाली ||