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Showing posts from March, 2015

बचपन की कविता १ - उठो लाल

उठो लाल अब आँखे खोलो, पानी लाई हूँ मुह धो लो | बीती रात कमल दल फूले, उनके ऊपर भँवरे झूले | चिड़िया चहक उठी पेड़ों पर, बहने लगी हवा अति सुन्दर |  नभ में न्यारी लाली छाई, धरती ने प्यारी छवि पाई | भोर हुई सूरज उग आया, जल में पड़ी सुनहरी छाया | नन्ही नन्ही किरणें आईं, फूल खिले कलियाँ मुस्काईं | इतना सुन्दर समय ना खोओ, मेरे प्यारे अब मत सोओ |

बचपन की कविता २ - यदि होता किन्नर नरेश मैं

यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता| सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता|| बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे | प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे || मेरे वन में सिह घूमते, मोर नाचते आँगन | मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण || यदि होता किन्नर नरेश मैं, शाही वस्त्र पहनकर | हीरे, पन्ने, मोती माणिक, मणियों से सजधज कर || बाँध खडग तलवार सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता | बड़े सवेरे ही किन्नर के राजमार्ग पर चलता || राज महल से धीमे धीमे आती देख सवारी | रूक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी || जय किन्नर नरेश की जय हो, के नारे लग जाते | हर्षित होकर मुझ पर सारे, लोग फूल बरसाते || सूरज के रथ सा मेरा रथ आगे बढ़ता जाता | बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता || तब लगता मेरी ही हैं ये शीतल मंद हवाऍ | झरते हुए दूधिया झरने, इठलाती सरिताएँ || हिम से ढ़की हुई चाँदी सी, पर्वत की मालाएँ | फेन रहित सागर, उसकी लहरें करतीं क्रीड़ाएँ || दिवस सुनहरे, रात रूपहली ऊषा-साँझ की लाती | छन-छनकर पत्तों से बुनती हुई चाँदनी जाली ||