Skip to main content

थाल सजा कर किसे पूजने

थाल सजाकर किसे पूजने, चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का, पीताम्बर तन पर डाले?

कहाँ चले ले चन्दन अक्षत, बगल दबाए मृगछाला?
कहाँ चली यह सजी आरती? कहाँ चली जूही माला?

ले मुंजी उपवीत मेखला, कहाँ चले तुम दीवाने?
जल से भरा कमण्डल लेकर, किसे चले तुम नहलाने?

मौलसिरी का यह गजरा, किसके गज से पावन होगा?
रोम कंटकित प्रेम - भरी, इन आँखों में सावन होगा?

चले झूमते मस्ती से तुम, क्या अपना पथ आए भूल?
कहाँ तुम्हारा दीप जलेगा, कहाँ चढ़ेगा माला - फूल?

इधर प्रयाग न गंगासागर, इधर न रामेश्वर काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा? कहाँ चले तुम संन्यासी?

क्षण भर थमकर मुझे बता दो, तुम्हें कहाँ को जाना है?
मन्त्र फूँकनेवाला जग पर, अजब तुम्हारा बाना है॥

नंगे पैर चल पड़े पागल, काँटों की परवाह नहीं।
कितनी दूर अभी जाना है? इधर विपिन है, राह नहीं॥

मुझे न जाना गंगासागर, मुझे न रामेश्वर, काशी।
तीर्थराज चित्तौड़ देखने, को मेरी आँखें प्यासी॥

अपने अचल स्वतंत्र दुर्ग पर, सुनकर बैरी की बोली
निकल पड़ी लेकर तलवारें, जहाँ जवानों की टोली,

जहाँ आन पर माँ - बहनों की, जला जला पावन होली
वीर - मंडली गर्वित स्वर से, जय माँ की जय जय बोली,

सुंदरियों ने जहाँ देश - हित, जौहर - व्रत करना सीखा,
स्वतंत्रता के लिए जहाँ, बच्चों ने भी मरना सीखा,

वहीं जा रहा पूजा करने, लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा, वहीं चढ़ेगा माला - फूल॥

वहीं मिलेगी शान्ति, वहीं पर, स्वस्थ हमारा मन होगा।
प्रतिमा की पूजा होगी, तलवारों का दर्शन होगा॥

वहाँ पद्मिनी जौहर-व्रत कर, चढ़ी चिता की ज्वाला पर,
क्षण भर वहीं समाधि लगेगी, बैठ इसी मृगछाला पर॥

नहीं रही, पर चिता - भस्म तो, होगा ही उस रानी का।
पड़ा कहीं न कहीं होगा ही, चरण - चिह्न महरानी का॥

उस पर ही ये पूजा के सामान, सभी अर्पण होंगे।
चिता - भस्म - कण ही रानी के, दर्शन - हित दर्पण होंगे॥

आतुर पथिक चरण छू छूकर, वीर - पुजारी से बोला;
और बैठने को तरु - नीचे, कम्बल का आसन खोला॥

देरी तो होगी, पर प्रभुवर, मैं न तुम्हें जाने दूँगा।
सती - कथा - रस पान करूँगा, और मन्त्र गुरु से लूँगा॥

कहो रतन की पूत कहानी,, रानी का आख्यान कहो।
कहो सकल जौहर की गाथा, जन जन का बलिदान कहो॥

कितनी रूपवती रानी थी? पति में कितनी रमी हुई?
अनुष्ठान जौहर का कैसे? संगर में क्या कमी हुई?

अरि के अत्याचारों की, तुम सँभल सँभलकर कथा कहो।
कैसे जली किले पर होली? वीर सती की व्यथा कहो॥

रचनाकार: श्यामनारायण पाण्डेय

Comments

Popular posts from this blog

बचपन की कविता २ - यदि होता किन्नर नरेश मैं

यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता| सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता|| बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे | प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे || मेरे वन में सिह घूमते, मोर नाचते आँगन | मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण || यदि होता किन्नर नरेश मैं, शाही वस्त्र पहनकर | हीरे, पन्ने, मोती माणिक, मणियों से सजधज कर || बाँध खडग तलवार सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता | बड़े सवेरे ही किन्नर के राजमार्ग पर चलता || राज महल से धीमे धीमे आती देख सवारी | रूक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी || जय किन्नर नरेश की जय हो, के नारे लग जाते | हर्षित होकर मुझ पर सारे, लोग फूल बरसाते || सूरज के रथ सा मेरा रथ आगे बढ़ता जाता | बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता || तब लगता मेरी ही हैं ये शीतल मंद हवाऍ | झरते हुए दूधिया झरने, इठलाती सरिताएँ || हिम से ढ़की हुई चाँदी सी, पर्वत की मालाएँ | फेन रहित सागर, उसकी लहरें करतीं क्रीड़ाएँ || दिवस सुनहरे, रात रूपहली ऊषा-साँझ की लाती | छन-छनकर पत्तों से बुनती हुई चाँदनी जाली ||                                          

घर से निकलते समय ॥

अचानक बचपन में माँ द्वारा कही एक लोकोक्ति याद आई। यह लोकोक्ति बताती है की घर से निकलने से पहले क्या करें की आपका काम सफल हो जाये । रवि को पान, सोम को दर्पण (दर्पण देख कर निकलो ), मंगल कीजे  गुड़  को   अर्पण, बुध को धनिया, बिफ़ै राइ, सुक कहे मोहे दही सुहाई, शनिचर कहे जो अदरक पाऊं तीनो लोक जीत घर जाऊं मैं ये नहीं कह रहा की ये सत्य है और मैं ये भी नहीं कहता की ये सब बकवास और ढकोसला है पर इतना कहना चाहता हूँ की इन कामों कर के घर से निकलने पर आत्मविश्वास बढ़ जाता है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है ॥ धन्यवाद्

हे भारत के राम जगो

यह कविता हमारे फिल्म जगत के बहुत ही विशुद्ध एवं मंझे हुए कलाकार श्रीमान आशुतोष राणा जी द्वारा एक चैनल के साछात्कार के मध्य में सुनाया गया जो सभी भारतीयों के लिए अत्यंत प्रेरणा श्रोत है एवं वीर रस से ओत प्रोत है हे भारत के राम जगो, मैं तुम्हे जगाने आया हूँ, सौ धर्मों का धर्म एक, बलिदान बताने आया हूँ । सुनो हिमालय कैद हुआ है, दुश्मन की जंजीरों में आज बता दो कितना पानी, है भारत के वीरो में, खड़ी शत्रु की फौज द्वार पर, आज तुम्हे ललकार रही, सोये सिंह जगो भारत के, माता तुम्हे पुकार रही । रण की भेरी बज रही, उठो मोह निद्रा त्यागो, पहला शीष चढाने वाले, माँ के वीर पुत्र जागो। बलिदानों के वज्रदंड पर, देशभक्त की ध्वजा जगे, और रण के कंकण पहने है, वो राष्ट्रभक्त की भुजा जगे ।। अग्नि पंथ के पंथी जागो, शीष हथेली पर धरकर, जागो रक्त के भक्त लाडले, जागो सिर के सौदागर, खप्पर वाली काली जागे, जागे दुर्गा बर्बंडा, और रक्त बीज का रक्त चाटने, वाली जागे चामुंडा । नर मुंडो की माला वाला, जगे कपाली कैलाशी, रण की चंडी घर घर नाचे, मौत कहे प्यासी प्यासी, रावण का वध स्वयं करूँगा, कहने वाला राम जगे